इंटरनेशनल डेस्क: वर्तमान में पूरे विश्व प्रकृति से छेड़छाड़ करने का खामियाजा भुगतना रहा है। विकास के एवज में जो प्रकृति का विनाश हुआ है, वह आने वाले दशकों में जलवायु परिवर्तन से पैदा होने वाले खतरों की घंटी बजा रहा है। इसके बावजूद इंसान अपनी जरूरतों को पूरा करने के लिए प्रकृति के विरुद्ध अपने अभियान बंद करने को तैयार नहीं है। बीते माह कृत्रिम बारिश कराने का दुबई में के लोगों को जहां भारी खामियाजा भुगतना पड़ा था, वहीं अब सऊदी अरब में भी लोगों को इसी तरह के हालात का सामना करना पड़ रहा है। मीडिया रिपोर्ट के मुताबिक सऊदी अरब बाढ़ से तबाह होने वाला नवीनतम खाड़ी देश है। सऊदी अरब में पैदा हुए बाढ़ जेसे हालात को लेकर भी अब यह सवाल उठने लगे हैं कि क्या यहां भी बारिश की चाह में कहीं कृत्रिम बारिश कराने  के लिए क्लाउड-सीडिंग तकनीक का उपयोग तो नहीं किया गया था।

रिपोर्ट के मुताबिक सऊदी अरब में रियाद में अचानक आई बाढ़ से सड़कें जलमग्न हो गईं हैं। सऊदी अरब के अधिकारियों ने रेगिस्तानी खाड़ी में अचानक आई बाढ़ के बाद कई क्षेत्रों में स्कूल बंद कर दिए। राष्ट्रीय मौसम विज्ञान केंद्र ने कासिम और अन्य क्षेत्रों, राजधानी रियाद और लाल सागर की सीमा से लगे मदीना प्रांत के लिए रेड अलर्ट जारी किया। इसने तेज हवा के साथ भारी बारिश, क्षैतिज दृश्यता की कमी, ओलावृष्टि, मूसलाधार बारिश और वज्रपात की चेतावनी दी। सऊदी अरब में इस सप्ताह की भारी बारिश अप्रैल के मध्य में इस क्षेत्र में हुई भारी बारिश के बाद हुई है, जिसमें ओमान में 21 और संयुक्त अरब अमीरात में चार लोगों की मौत हो गई थी। ऐसा कहा जा रहा है कि सऊदी में ये तूफान दुबई की विनाशकारी बाढ़ के मद्देनजर आए हैं, जिसके लिए व्यापक रूप से अति उत्साही क्लाउड सीडिंग को जिम्मेदार ठहराया जा रहा है।


 

दुबई में हो गए थे जल प्रलय जेसे हालात
बीते माह के मध्य में दुबई बुरी तरह से बाढ़ की चपेट में आ गया था। सड़कें जहां पानी में जलमग्न हो गई थी वहीं स्कूल-कॉलेज, शॉपिंग मॉल, पार्किंग और एयरपोर्ट तकरीबन अधिकतर जगह पानी में डूब गए थे। कई मीडिया रिपार्टों में यह दाावा किया गया है कि वैज्ञानिकों ने बारिश की कमी को पूरा करने के लिए कृत्रिम बारिश कराने के लिए क्लाउड सीडिंग तकनीक का इस्तेमाल किया। माना जा रहा है कि इस तकनीक को इस्तेमाल करते समय बादल फटने की भयंकर घटना हुई और दुबई में जल प्रलय जैसे हालात पैदा हो गए। ऐसा कहा जा रहा है कि दुबई में जितनी बारिश डेढ़ साल में होती थी वह महज कुछ ही घंटों में हो गई। मौसम विभाग ने बीते माह 5.7 इंच तक बारिश दर्ज की थी।  

क्या है क्लाउड-सीडिंग का कांसेप्ट
क्लाउड-सीडिंग से बारिश करवाने के लिए आम तौर पर एयरक्राफ्ट का इस्तेमाल किया जाता है। एयरक्राफ्ट में सिल्वर आयोडाइड के दो बर्नर या जनरेटर लगे होते हैं, जिनमें सिल्वर आयोडाइड का घोल हाई प्रेशर पर भरा होता है। निर्धारित  इलाके में इसे हवा की उल्टी दिशा में चलाया जाता है। बादल से सामना होते ही बर्नर चालू कर दिये जाते हैं। उड़ान का फैसला क्लाउड-सीडिंग अधिकारी मौसम के आंकड़ों के आधार पर करते हैं। शुष्क बर्फ, पानी को जीरो डिग्री सेल्सियस तक ठंडा कर देती है, जिससे हवा में मौजूद पानी के कण जम जाते हैं। कण इस तरह से बनते हैं, जैसे वे कुदरती बर्फ हों। इसके लिए बैलून, विस्फोटक रॉकेट का भी प्रयोग किया जाता है। क्लाउड सीडिंग का पहला प्रदर्शन जनरल इलेक्ट्रिक लैब द्वारा फरवरी 1947 में बाथुर्स्ट, ऑस्ट्रेलिया में किया गया था। उसके बाद से तमाम देशों ने इसे यूज किया।
 

ऐसे भी करवाई जाती है कृत्रिम बारिश
पहले चरण में केमिकल्स को एयरक्राफ्ट्स के जरिए उस इलाके के ऊपर बहने वाली हवा में भेजा जाता है जहो बारिश करवानी हो। यह कैमिकल्स हवा में मिलकर बारिश वाले बादल तैयार करते हैं। इस प्रक्रिया में कैल्शियम क्लोराइड, कैल्शियम कार्बाइड, कैल्शियम ऑक्साइड, नमक तथा यूरिया के यौगिक और यूरिया, अमोनियम नाइट्रेट के यौगिक का इस्तेमाल किया जाता है। ये यौगिक हवा से जलवाष्प को सोख लेते हैं और दवाब बनाने की प्रक्रिया शुरू कर देते हैं। दूसरे चरण में बादलों के द्रव्यमान को नमक, यूरिया, अमोनियम नाइट्रेट, सूखा बर्फ और कैल्शियम क्लोराइड का प्रयोग करके बढ़ाया जाता है। तीसरे चरण में सिल्वर आयोडाइड और शुष्क बर्फ जैसे ठंडा करने वाले रसायनों की आसमान में छाए बादलों में बमबारी की जाती है। ऐसा करने से बादल में छुपे पानी के कण बिखरकर बारिश के रूप में जमीन पर गिरने लगते हैं।

80 किलोमीटर दूर तक ट्रांसफर किए जा सकते हैं बादल
मुबई स्थित इंटरनेशनल स्कूल ऑफ प्रोफेशनल स्टडीज के निदेशक एवं ट्रस्टी अब्दुल रहमान वानू ने दावा किया था कि आधुनिक तकनीक से किसी सूखे क्षेत्र में बारिश करवाने के लिए एक बादल को उसकी मूल स्थिति से अधिकतम 80 किलोमीटर की दूरी तक स्थानांतरित किया जा सकता है। इस प्रक्रिया के लिए 47 प्रतिशत शुद्धता वाले सिल्वर आयोडीन की जरूरत होती है, जिसे कि अर्जेंटीना से आयात किया जाता है। इस आयात के लिए हमें राज्य सरकार से अंतिम उपभोक्ता प्रमाणपत्र (एंड यूजर सर्टिफिकेट) चाहिए होता है। प्रमाणपत्र मिलने के बाद आयोडीन का आयात किया जा सकता है और कृत्रिम बारिश करवाई जा सकती है। उनका यह भी कहना है कि राकेट तकनीक का परीक्षण सिंधुदुर्ग और सांगली जैसे इलाकों में किया गया है। यह जमीन से दागे जाने पर 45 किलोमीटर की दूर स्थित लक्ष्य को भेद सकता है। रॉकेट के शीर्ष पर मौजूद सिल्वर आयोडीन बादलों में जाकर विस्फोटित हो जाता है। इससे बादलों में एक रासायनिक क्रिया होती है, जिसके चलते 40 से 60 मिनट में बारिश हो जाती है।

 

भारत के इन राज्यों में क्लाउड सीडिंग प्रोजेक्ट
रिपोर्ट के मुताबिक पानी के संकट से निपटने के लिए भारत के कुछ राज्य अपने ही स्तर पर पिछले 35 वर्षों से प्रोजेक्ट चला रहे हैं। तमिलनाडु सरकार ने 1983 में सूखाग्रस्त इलाकों में पहली बार कृत्रिम बारिश करवाई थी। 2003 और 2004 में कर्नाटक सरकार ने क्लाउड सीडिंग प्रक्रिया को अपनाया और इसके सकारात्मक परिणाम आने पर आज भी राज्य के सूखाग्रस्त इलाकों में कृत्रिम बारिश का इस्तेमाल किया जा रहा है। इसके बाद महाराष्ट्र ने भी सूखे से निपटने के लिए अपने स्तर पर कृत्रिम बारिश का सहारा लिया। आंध्र प्रदेश में 2008 से 12 जिलों में कृत्रिम बारिश करवाने का प्रोजेक्ट चलाया जा रहा है। प्रदेश में कृत्रिम वर्षा के लिए सिल्वर आयोडाइड के स्थान पर कैल्शियम क्लोराइड का प्रयोग किया जा रहा है। आंध्र प्रदेश में कृत्रिम बारिश पर रोजाना करीब 18 लाख रुपए का खर्च आता है।