भगवद्गीता में भगवान ने बताया गया है कि जीव भौतिक शरीर नहीं है। वह आध्यात्मिक स्फुलिंग है और परम सत्य परम पूर्ण है। उन्होंने जीव को परम पूर्ण का अंश बताते हुए पूर्ण पर ही ध्यान लगाने की सलाह दी है। कहते हैं कि जो मनुष्य भौतिक शरीर का त्याग करते समय कृष्ण का ध्यान करता है, वह तुरंत कृष्ण के धाम को चला जाता है। भगवान स्पष्ट कहते हैं कि योगियों में से, जो भी अपने अन्त:करण में निरंतर कृष्ण का चिन्तन करता है, वही परम सिद्ध माना जाता है। इसका यही निष्कर्ष है कि मनुष्य को कृष्ण के सगुण रूप के प्रति अनुरक्त होना चाहिए, क्योंकि वही चरम आत्म-साक्षात्कार है। इतने पर भी ऐसे लोग हैं जो कृष्ण के साकार रूप के प्रति अनुरक्त नहीं होते। वे परम सत्य के उस निराकार रूप का ही ध्यान करना श्रेष्ठ मानते हैं, जो इन्द्रियों की पहुंच के परे है तथा अप्रकट है।  
इस तरह सचमुच में अध्यात्मवादियों की दो श्रेणियां हैं। अर्जुन यह निश्चित कर लेना चाहता है कि कौन सी विधि सुगम है और इन दोनों श्रेणियों में से कौन सर्वाधिक पूर्ण है। दूसरे शब्दों में, वह अपनी स्थिति स्पष्ट कर लेना चाहता है, क्योंकि वह कृष्ण के सगुण रूप के प्रति अनुरक्त है। वह निराकार ब्रह्म के प्रति आसक्त नहीं है। वह जान लेना चाहता है कि उसकी स्थिति सुरक्षित तो है! निराकार स्वरूप, चाहे इस लोक में हो, चाहे भगवान के परम लोक में, ध्यान के लिए समस्या बना रहता है।  
वास्तव में कोई भी परम सत्य के निराकार रूप का ठीक से चिन्तन नहीं कर सकता। अत: अर्जुन कहना चाहता है कि इस तरह से समय गंवाने से क्या लाभ? अर्जुन को अनुभव हो चुका है कि कृष्ण के साकार रूप के प्रति आश्वसक्त होना श्रेष्ठ है, क्योंकि इस तरह वह एक ही समय अन्य सारे रूपों को समझ सकता है और कृष्ण के प्रति उसके प्रेम में किसी प्रकार का व्यवधान नहीं पड़ता। अत: अर्जुन द्वारा कृष्ण से इस महत्वपूर्ण प्रश्न के पूछे जाने से परम सत्य के निराकार तथा साकार स्वरूपों का अन्तर स्पष्ट हो जाएगा।