रायसेन ।    सांची में कोरोनाकाल के बाद पहली बार बौद्ध वार्षिक महोत्‍सव धूमधाम से मनाया जा रहा है। शनिवार को सुबह आठ बजे इस समारोह का शुभारंभ हुआ। इस अवसर पर सांची में भगवान बुद्ध के दो परम शिष्यों सारिपुत्र व महामोग्गलायन की पवित्र अस्थियों को सार्वजनिक दर्शनार्थ चैत्यागिरी विहार मंदिर में रखा गया है। बर्ष में सिर्फ दो दिन यह अस्थियां प्रशासन व पुलिस की सुरक्षा में स्तूप से निकाली जाती हैं। भारत समेत श्रीलंका, जापान, वियतनाम सहित अन्‍य देशों के हजारों श्रद्धालु इस समारोह में शिरकत करने पहुंचे हैं। सांची को सबसे सुरक्षित पूर्ण स्तूप माना जाता है। यहां भारत के अलावा अन्‍य देशों से लाखों बौद्ध अनुयायी आते हैं।। महोत्‍सव के दौरान यहां पर्यटक बौद्ध दर्शन के साथ सनातन संस्कृति भी देख सकेंगे। सांची के प्राचीन शिलालेखों में बौद्ध दर्शन व सनातन संस्कृति का समावेश नजर आता है।

सम्राट अशोक का बनवाया सिंह स्तंभ

सम्राट अशोक ने जिस सिंह स्तंभ को बनवाया, उसमें ब्राह्मी लिपि का उपयोग किया गया है। ब्राह्मी लिपि को संस्कृत के समान सनातन लिपि माना जाता है। विश्व संरक्षित धरोहर सांची के मुख्य स्तूप के प्राचीन तोरण द्वारों पर उकेरी गईं भगवान बुद्ध की जातक कथाओं में भी सनातन संस्कृति मिलती है। जिस प्रकार सनातन में भगवान विष्णु के विभिन्न अवतारों की कथा है, उसी तरह भगवान बुद्ध की जातक कथाओं का चित्रण स्तूप के तोरण द्वारों पर मिलता है। भगवान बुद्ध के पूर्व जन्मों की जातक कथाओं को पत्थरों के स्तंभों पर उकेरा गया है।

चार तोरण द्वारों में जातक कथाएं

सम्राट अशोक ने सांची में मुख्य स्तूप का निर्माण मिट्टी व ईंटों से कराया था। उसके बाद शुंग व सातवाहन के शासनकाल में पत्थरों से स्तूप का विस्तार किया गया व चार तोरण द्वारों पर भगवान बुद्ध की जातक कथाओं को उकेरा गया है। प्रत्येक तोरण में दो चौकोर स्तंभ हैं। जो चार शेर, हाथी, बंदर इत्यादि उकेरे गए हैं। इनमें पांच जातकों के दृश्य मिलते हैं। इन पांच जातकों में छद्दन्त जातक, महाकपि जातक, महावेस्सन्तर जातक, अलम्बुस जातक और साम जातक। भगवान बुद्ध के जीवन से संबंधित जिन दृश्यों को तोरणों में उकेरा गया है उनमें भारतीय दर्शन नजर आता है। जैसे जन्म, बोधि प्राप्ति, प्रथम धर्मोपदेश, महापरिनिर्वाण, माता महामाया का स्वप्न व अवधारणा। चार यात्राएं जिनमें बूढ़े रोगी, शव व सन्यासी को देखा। मानुषिक बुद्धों से संबंधित दृश्य। सांची स्तूप के तोरण द्वारों पर गौतम बुद्ध सहित पहले के छह मानुषी बुद्धों को प्रतिकात्मक रूप से दर्शाया गया है।

विश्व के प्राचीनतम शिलालेख

सांची में मौजूद सम्राट अशोक के स्तंभ पर ब्राह्मी लिपि में मौजूद शिलालेख को विश्व का प्राचीनतम शिलालेख माना जाता है। कुछ इतिहासकार व पुरातत्वविद ब्राह्मी लिपि को संस्कृत का भी भाग मानते हैं। क्योकि सम्राट अशोक ने संस्कृत में शिक्षा-दीक्षा प्राप्त की थी। इससे यह बात स्पष्ट होती है कि सनातन संस्कृति का उनके जीवन पर गहरा प्रभाव था। गौतम बुद्ध के पूर्वज भी सनातन धर्म के ही मानने वाले थे। गौतम बुद्ध ने अपने जीवनकाल में जो शिक्षा प्राप्त की, उसमें सनातन की परंपराएं शामिल हैं। जैसे गौतम बुद्ध का निर्वाण, आध्यात्मिक व नैतिक साधनाएं, दुख का निदान, ज्ञान, कर्म के बंधन से छुटकारा, पुनर्जन्म के चक्र से मुक्ति इत्यादि में सनातन समाहित हैं।

इनका कहना है

बौद्ध धर्म में सनातन के सिद्धांत समाहित हैं। बौद्ध और सनातन दोनों ही दर्शन में मानव कल्याण की भावना शामिल है। बुद्ध के पूर्वज सनातन धर्म के मानने वाले रहे हैं। बुद्ध ने जन्म से लेकर निर्वाण तक अपने जीवनकाल जो भी प्राप्त किया उसमें सनातन दर्शन का अहम योगदान दिखाई देता है।

- डा. संतोष प्रियदर्शी, व्याख्याता बौद्ध दर्शन, सांची विवि।

भारतीय दर्शन में उपनिषदों में जिस प्रकारण निर्वाण, आध्यात्मिक साधनाएं, दुखों का निदान, ज्ञान की प्राप्ति व पुनर्जन्म के चक्र से मुक्ति की बातें कहीं गई हैं वे सभी भगवान बुद्ध के उपदेशों व जीवन वृतांत में भी नजर आती हैं। इसलिए यह कहना सही है कि बौद्ध तथा सनातन संस्कृति एक-दूसरे में समाहित है।

- डा. नवीन दीक्षित, व्याख्याता भारतीय दर्शन, सांची विवि।

सांची में स्थित पुरातत्व विभाग के संग्रहालय में सम्राट अशोक के सिंह स्तंभ का भाग रखा हुआ है। जिसमें ब्राह्मी लिपि में शिलालेख है। मौर्यकाल में ब्राह्मी लिपि का चलन संस्कृत के माध्यम से ही हुआ है। यह दुनिया की सबसे प्राचीनतम लिपि में शामिल है। सनातन धर्म के वेदों व उपनिषदों को संस्कृत में लिखा गया है।

- डा. मोहनचंद जोशी, पूर्व संग्रहालय प्रभारी, सांची।

सांची में सम्राट अशोक के आने से पूर्व के इतिहास की बात करें तो इस क्षेत्र के निवासी सनातन संस्कृति को मामने वाले थे। अशोक ने जो ब्राह्मी लिपि में शिलालेख बनवाए वे भी भारतीय दर्शन से प्रभावित हैं। अशोक और उसके बाद के शासनकाल में भी सांची व आसपास के क्षेत्रों में सनातन व बौद्ध संस्कृति एक-दूसरे के सहयोगी के रूप में विकसित हुई है।

-डा. अलकेश चतुर्वेदी, वरिष्ठ इतिहासकार, सांची विवि।